अष्टावक्र ऋषि कहोदा और आरुणि ऋषि की पुत्री सुजाता के पुत्र थे। उनका शरीर टेढ़ा-मेढ़ा होने के कारण उनका नाम अष्टावक्र था। जब वह अपनी माँ के पेट में थे तब अपने पिता के अध्ययन के समय कोई गलती हो जाने पर माँ के पेट से आवाज़ कर पिता तो सही करने की कोशिश करते थे। इसीलिए गुस्से में पिता ने उन्हें अष्टावक्र होने का शाप दे दिया।
जब अष्टावक्र बहुत छोटे थे, वे शास्त्रार्थ करने राजा जनक की नगरी गए। वहां वंदिन नामक ज्ञानी से शास्त्रार्थ हार गए और शास्त्रार्थ की शर्त के अनुसार उनको पानी में डुबो दिया गया।
जब अष्टावक्र १० वर्ष के हुए, उनको उनकी माता ने पिता के विषय में बताया। माता की बात सुनकर अष्टावक्र वंदिन के साथ शास्त्रार्थ करने राजा जनक के यहाँ आये। राजा जनक बालक से मिलकर अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने वंदिन के साथ शास्त्रार्थ करने की अनुमति दे दी।
अष्टावक्र ने अपने ज्ञान से वंदिन को पराजित कर दिया और अपने पिता तथा अन्य ज्ञानियों को मुक्त करा दिया।
उनके पिता अपने पुत्र के ज्ञान से अत्यंत प्रभावित हुए और उनको अपने शाप की गलती का प्रायश्चित हुआ। उन्होंने अष्टावक्र को एक दिव्य सरोवर में स्नान करने को कहा जिससे उनका शरीर ठीक हो गया।
राजा जनक ने अष्टावक्र को अपना गुरु मान लिया। दोनों के बीच हुए संवाद को अष्टावक्र गीता के नाम से जाना जाता है। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
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