विग्रहों और मंदिर का निर्माण संपन्न हो चुका था। अब केवल उनकी प्रतिष्ठा करनी बाकी थी। लेकिन इसमें भी एक अड़चन थी, जिस भगवान जगन्नाथ की मूर्तियाँ बनाना भी किसी नश्वर के लिए असंभब था, उनकी प्रतिष्ठा भला कोई साधारण ब्राह्मण कैसे कर सकता था। इसके लिए तो शायद देवर्षि नारद अथवा देवगुरु बृहस्पति जैसे दिव्य ऋषियों की आवश्यकता थी।
राजा इन्द्रद्युम्न अब तपस्या में बैठ गए। थोड़ी देर बाद किसी के बुलाने पर राजा का ध्यान खुलता है और वह अपने सामने देवर्षि नारद को खड़ा पाते हैं। नारद को प्रणाम कर वह उनसे मंदिर तथा विग्रहों की स्थापना के बारे में मार्गदर्शन मांगते हैं।
"नारायण, नारायण। यह बात आपकी सत्य है राजन। जिस स्वरूप को बनाने हेतु देवशिल्पी विश्वकर्मा को आना पड़ा, उस स्वरूप की प्राण प्रतिष्ठा केवल वही कर सकता है जो तीनोलोकों में सवश्रेष्ठ वेदज्ञ हो।" देवर्षि नारद ने राजा से कहा।
"क्षमा करें देवर्षि, परंतु आप और देवगुरु बृहस्पति के अतिरिक्त और ऐसा कौन है जो इतना उत्कृष्ट ब्राह्मण व पारंगत विद्वान हो?" राजा ने पुनः पूछा।
"मैं उनकी बात कर रहा हूँ राजन, जिनके श्रीमुख से समस्त वेदों की उत्पत्ति हुई है। केवल और केवल मेरे पिता, ब्रह्मदेव के हाथों ही भगवान श्रीहरि का यह कार्य संपादित हो सकता है।"
"अहोभाग्य मेरे, देवर्षि। यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं अभी आपके साथ ब्रह्मलोक जाकर प्रजापिता को निमंत्रण देना चाहता हूँ, भगवन।" इन्द्रद्युम्न ने प्रसन्न होकर कहा।
"अवश्य राजन।" देवर्षि उन्हें अपने साथ स्वदेह ब्रह्मलोक ले जाने के लिए तैयार हो गए।
इन्द्रद्युम्न ने विद्यापति, विश्वावसु तथा रानी गुंडिचा से विदा ली और जल्द लौटने का वादा कर देवर्षि के साथ ब्रह्मलोक की यात्रा पर निकल गए। जब वह ब्रह्मलोक पहुंचे तो ब्रह्मा जी ध्यानमग्न थे। राजा इंद्रद्युम्न ने उनका ध्यान खत्म होने तक प्रतीक्षा करना ही उचित समझा।
कुछ समय बाद जब ब्रह्माजी तप से जागे तो राजा इंद्रद्युम्न ने उन्हें प्रणाम कर मंदिर की प्रतिष्ठा करने हेतु निमंत्रण दिया जिसे प्रजापिता ने सहर्ष स्वीकार किया। ब्रह्मा की स्वीकृति देते ही राजा का मन अब अत्यंत प्रसन्न हो उठा। वह जल्द से जल्द रानी गुंडिचा के साथ ब्रह्माजी के आने की खुशखबरी बांटने के लिए व्याकुल थे। अतएव अब वह ब्रह्मलोक से पृथ्वीलोक पर वापस आ गये।
वापस नीलांचल में पहुंच कर राजा को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। अब शंख क्षेत्र नामक कोई जगह समुद्र तट पर नहीं थी। राजा का महल, वह भव्य मंदिर तथा राजा की बसाई हुई पूरी की पूरी नगरी का कोई नामोनिशान नहीं था। चारों तरफ बस मीलों तक रेत ही रेत थी जैसा कि किसी भी सागर तट पर होता है। राजा को लगा कि वह अवश्य ही सपना देख रहे हैं, क्योंकि ऐसा भला कैसे हो सकता है कि कुछ ही घंटों पहले उन्होंने यहीं रानी गुंडिचा से बात की थी, और अब वहां कुछ भी नहीं था। रानी, विद्यापति, विश्वावसु, उनका मंत्री परिषद, प्रजा, सारे कारीगर यहां तक के हाथी घोड़े भी वहां से अदृश्य हो चुके थे।
राजा बहुत देर तक रानी गुंडिचा और विद्यापति का नाम पुकार पुकार कर उन्हें बुलाते रहे। अंत में दुख से व्याकुल, चिंतित होकर वहीं समुद्र किनारे रेत पर बैठ गए।
"अब फिर कौन सी परीक्षा ले रहे हो प्रभु, अब फिर कौन सी..." यही एक वाक्य वह बार बार जप रहे थे।
शाम हुई तो उन्हें कुछ लोग नज़र आये। इंद्रद्युम्न उनके पास जाकर उस जगह के बारे में पूछने लगे। सामने वाले आदमी ने जो कहा वह सुनकर राजा के पैरों तले की भूमि खिसक गई। उस आदमी ने कहा कि, "लगता है आप विदेशी हो मान्यवर, यह जगह उत्कल देश है और यहां पिछले चौदह पीढियों से प्रवल प्रतापी राजा गाल माधव का परिवार साशन करता आ रहा है।"
"चौदह पीढ़ियों से? यह असंभव है। मैंने तो सुना था कि यहाँ राजा इंद्रद्युम्न का शासन है?" राजा ने कहा।
"मैंने किसी इन्द्रद्युम्न का नाम कभी नहीं सुना । क्षमा कीजियेगा, लोग गलत पते पर आते हैं, मगर आप तो शायद गलत राज्य में ही आ गये हैं मान्यवर।" यह कहकर वह आदमी हंसने लगा।
राजा का दुःख अब किसी अनजान आशंका में बदल रहा था। लेकिन वह उस आदमी को पागल समझ कर आगे चलने लगे। कुछ दूर चलने के बाद उन्हें अखिरकर एक मंदिर की ध्वजा दिखाई दी।"अवश्य ही मेरा मंदिर है। निश्चित ही विद्यापति तथा बाकी के लोग यहां मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे!" यह कहकर इन्द्रद्युम्न भागते हुए मंदिर के सामने पहुंचते हैं। यद्यपि उन्हीं के द्वारा भगवान जगन्नाथ के लिए बनाया गया यह वही मंदिर था, लेकिन उसके अतिरिक्त कोई भी वस्तु ऐसी नहीं थी जिसे वह पहचानते हों।" सत्य जानने के लिये व्याकुल राजा मंदिर के बाहर बैठे एक ब्राह्मण के पास पहुंचे। अब फिर से अचंभित होने की बारी इंद्रद्युम्न की ही थी।
ब्राह्मण ने कहा, " यह राजा गाल माधव के कुल देवता भगवान विष्णु का मंदिर हैं। बहुत सालों पहले राजा के पूर्वजों को यह विशाल मंदिर पूरी तरह मिट्टी और रेत में दबा हुआ मिला था।"
राजा को आश्चर्यचकित देख ब्राह्मण ने आगे कहा,
“हे विदेशी, तुम्हारी जिज्ञासा समझ सकता हूँ मैं। भला इतना विशाल मंदिर मिट्टी में कैसे दबा हुआ था यह जानने की उत्सुकता है ना तुम्हारे भीतर?"
राजा अपनी सुध पूरी तरह से खो चुके थे और केवल सर हिला कर ब्राह्मण को हाँ में उत्तर दिया।
"तो सुनो, मंदिर को लेकर के एक लोककथा प्रचलित है। मैंने अपने पितामह से सुना था, उन्होंने अपने पितामह से। लगभग एक हज़ार वर्ष पहले, यहां इन्द्रद्युम्न नामक एक राजा का साशन था। हमारे महाराज की तरह ही वह भी प्रचंड विष्णु भक्त था। उसी ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था। परंतु प्रतिष्ठा करने से पूर्व, एक दिन शायद ब्रह्मा जी को निमंत्रण देने ब्रह्मलोक चला गया। बस उस दिन के बाद से उसे किसी ने नही देखा।"
इन्द्रद्युम्न को यह सब सुनकर अपने कानों पर विश्वास नही हो रहा था।
"उसकी प्रजा, उसकी रानी, मंत्री परिषद सब उसकी प्रतीक्षा करते करते मृत्यु को प्राप्त हो गए, परंतु वह नहीं आया। ऐसे ही कई पीढ़ियों के बाद धीरे धीरे उसका बसाया हुआ राज्य काल की गर्भ में लीन हो गया। उसका बनाया यह मंदिर भी पूरी तरह रेत में गड़ा हुआ था, एक दिन राजा के घोड़े की नाल किसी वस्तु से टकराई और राजा भूमि पर गिर पड़े। मिट्टी हटाई तो पता चला कि किसी मंदिर का शिखर है। बहुत दिन तक खुदाई करने के पश्चात तब जाकर कहीं इस भव्य मंदिर का ढांचा सामने आया। चूँकि मंदिर खाली था, तो राजा ने इसमें अपने आराध्य भगवान विष्णु की स्थापना की। बस तभी से यहाँ बैष्णव पूजन की परंपरा का प्रारंभ हुआ है।" ब्राह्मण यह कहानी सुनाकर राजा इन्द्रद्युम्न को देख रहा था जो कि किसी बच्चे की तरह रोने लग गए थे।
"अरे क्या हुआ मान्यवर? आप उसी इंद्रद्युम्न के वंशज हैं क्या?" ब्राह्मण ने रोते हुए राजा से पूछा।
"नहीं ब्राह्मण श्रेष्ठ, मैं कोई वंशज नहीं बल्कि स्वयं वही अभागा इन्द्रद्युम्न हूँ।"
यह उत्तर सुनकर ब्राह्मण कोई प्रतिक्रिया दे पाता उससे पहले ही राजा रोते बिलखते चिल्लाते हुए मंदिर की ओर भागने लगे। उनके मन में अब कोई संदेह नहीं था। जिस ब्रह्मलोक में एक दिन गुज़र जाने पर मृत्युलोक में पूरा एक मन्वंतर निकल जाता है, वहाँ उनके बिताए गए कुछ समय का ही भुगतान था यह एक सहस्र वर्ष। राजा को समझ आ गया था कि, जिनको वह यहां छोड़ कर गए थे, उन सभी को मृत्यु को प्राप्त किये सैकड़ों वर्ष बीत चुके हैं।
"इतना बड़ा अन्याय क्यों किया मेरे साथ? कालचक्र के इस पहिये के नीचे मेरा सब कुछ कुचल गया भगवन। हे नीलमाधव, यह कैसी लीला है आपकी? इसका उत्तर आपको देना होगा, देना होगा इसका उत्तर...." रोष व अभिमान भरे कंठ से चींखते हुए राजा अब मंदिर के मुख्य द्वार की ओर बढ़ रहे थे। यह सब देख वहां उपस्थित सैनिकों ने राजा को पागल समझ कर बंदी बना लिया और गाल माधव के दरबार में लेकर चले गए।
दरबार में पूछे जाने पर राजा इन्द्रद्युम्न ने गाल माधब को सारा वृत्तांत बताया। परन्तु शायद ही कोई उनकी बात मानता। इसके विपरीत, वह इन्द्रद्युम्न हैं ऐसा कहने पर राजसभा में उपस्थित समस्त पार्षदों ने उनका तीव्र उपहास किया। किसी किसी ने तो इन्द्रद्युम्न के ऊपर शत्रु देश का गुप्तचर होने का भी लांछन लगाया।
"वृद्धावस्था के चलते मतिभ्रम हो गया है तुम्हारा, जाओ जाओ, तुम्हारी हालत पर दया करते हुए मैं तुम्हें कोई दंड नहीं दे रहा हूँ। यदि दोबारा ऐसा प्रलाप करते दिखाई दिए तो कठोर दंड मिलेगा।" गाल माधव ने अपमानित कर इन्द्रद्युम्न को राजसभा से निकाल दिया।
दिन भर का राजकार्य सम्पात कर जब गाल माधव निद्रा लेने गए तो देर रात उनके सपने में भगवान विष्णु आये। "अरे मूर्ख, तेरे अहंकार ने तुझे अंधा कर दिया है। जिसका तूने आज तिरस्कार किया वह मेरा सबसे बड़ा भक्त इन्द्रद्युम्न है। उसी ने मेरे आदेश अनुसार इस मंदिर का निर्माण किया है। यह मंदिर मेरे पुरुषोत्तम जगन्नाथ स्वरूप को समर्पित है जो आज भी अपने परम भक्त के हाथों ही प्रतिष्ठित होने की प्रतीक्षा किये रेत में दबी पड़ी है। जा, जाकर सम्मान के साथ इन्द्रद्युम्न को ले आ और विधिपूर्वक मेरे तथा इस मंदिर की स्थापना करवा।" श्रीहरि विष्णु का यह आदेश सुन गाल माधव उसी समय आधी रात में ही राजा इन्द्रद्युम्न को खोजने निकल गए। बहुत ढूंढने के बाद समुद्र के किनारे सिर को झुकाए अत्यंत दुखी बैठे राजा इन्द्रद्युम्न उन्हें मिल गये। इन्द्रद्युम्न को देखते ही गाल माधव उनके पैरों पर गिर गए और अपनी मूर्खता के लिए उसने क्षमा माँगी। तत्पश्चात वह पूरे राजकीय सम्मान के साथ राजा इन्द्रद्युम्न को अपने महल ले आये।
अगले दिन सुबह राजा इन्द्रद्युम्न और गाल माधव साथ ही मंदिर गए और भगवान विष्णु से वर्षों से दबी हुई त्रिमूर्तियों का संधान देने हेतु प्रार्थना करने लगे। जैसे ही वे मंदिर से बाहर आये तो एक बहुत तेज आंधी चलने लगी। तूफ़ान के प्रकोप से थोड़ी ही दूरी पर स्थिति एक विशाल टीले पर से रेत छंटने लगी। रेत के छंटते के साथ ही प्राचीन मूर्तिशाला का आकार बाहर आने लगा।
यह दृश्य देख राजा इन्द्रद्युम्न की आंखे भर आयी। पूरी मिट्टी हट जाने के बाद मूर्तिशाला के द्वार स्वयं ही खुल गए और अंदर से आने वाले दिव्य प्रकाश से सबकी आंखे चौंधियाने लगी। इतने साल दबे हुए होने के बाद भी त्रिमूर्तियों का तेज जरा सा भी कम नहीं हुआ था। जीवन में पहली बार विष्णु के इस अनोखे रूप का दर्शन करने वाले गाल माधव की आँखों से भी अब किसी अविरल झरने की तरह अश्रु बहने लगे।
उपयुक्त घड़ी आने पर देवराज इंद्र व देवर्षि नारद सहित प्रजापति ब्रह्मा वहां उपस्थित हुए। ब्रह्माजी के संरक्षण में वेद मंत्रोचारण के बीच त्रिमूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा हुई। द्वापर काल में ज़ारा व अर्जुन द्वारा समुद्र में बहाया गया श्रीकृष्ण का अवशेष अब एक शक्तिपुंज बन कर भगवान श्रीजगन्नाथ के विग्रह में प्रवेश कर गया। यह अलौकिक दृश्य देख समस्त देवगण स्वर्ग से पुष्पवृष्टि करने लगे। भगवान जगन्नाथ की प्रतिष्ठा कर अपने अंतिम कर्तव्य का पालन करके राजा इन्द्रद्युम्न ने अपने नश्वर शरीर का त्याग कर दिया और वैकुंठ लोक में विश्वावसु के पास अपना स्थान ग्रहण किया।आज भी पूरे विश्व में भगवान जगन्नाथ एकमात्र ऐसे देवता हैं जिनकी प्रतिमा जीवित है। श्रीकृष्ण का वह देह अवशेष आज भी भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा के अंदर वास करता है, जिसे ब्रह्म पदार्थ कहा जाता है। हर बारह वर्षों के बाद त्रिमूर्तियों का किसी जीवित मनुष्य के भांति ही अंतिम संस्कार किया जाता है और उस समय नई बनी प्रतिमा में प्राण स्वरूप श्री कृष्ण के अवशेष को स्थापित कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया को नवकलेवर कहा जाता है। भगवान नीलमाधव के कहे अनुसार आज भी विश्वावसु के वंशज ही प्रभु श्री जगन्नाथ के आद्य सेवक हैं, जिन्हें दैतापति कहा जाता है. Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
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